Thursday 22 September 2011

आत्मविश्वास हो तो सफ़लता मिलेगी ही



मुश्किलों से पार पाने का जज्बा हो तो सफ़लता कदम चूमेगी ही. राजेश कुमार ने इसी तथ्य को सूत्र मानकर जिंदगी जी है. कभी परिवार को लगता था कि राजेश भाई-बहनों के सहारे ही अपना पूरा जीवन गुजारेंगे, लेकिन आत्मविश्वास के बूते उन्होंने न केवल खुद मंजिल पायी है बल्कि अपने परिवार को भी सहारा दे रहे हैं. इस तरह वे युवाओं के लिए एक मिसाल बन गये हैं.
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती. किसी के सहारे पर जीने वाला यदि मन में ठान ले तो एक दिन खुद भी लोगों का सहारा बन सकता है. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं राजेश कुमार. राजेश दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. आज इन्हें किसी चीज की कमी नहीं है. लेकिन उनकी ऐसी स्थिति हमेशा से नहीं थी.
पुराने मिथ को तोड़ा
तीन साल की उम्र में आर्थिक तंगी ने राजेश की आंखों की रोशनी छीन ली. पूर्वी उत्तर प्रदेश में मस्तिष्क ज्वर बहुत फ़ैलता है. राजेश भी इसी के शिकार हुए. झोलाछाप डॉक्टरों के इलाज ने इनकी जिंदगी ही बदल डाली. डॉक्टरों ने बुखार तो उतार दिया, लेकिन इनकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए छीन ली. परिवार वाले हार गये और यह सोचकर बैठ गये कि इनको अपने भाई-बहन के आश्रय पर रहना पड़ेगा.
राजेश कहते हैं कि पूर्वाचल में कहीं भी चले जाओ, वहां एक तरह का मिथ मौजूद है कि हम जैसे लोगों की जिंदगी खराब हो गयी. हमें पैदा ही नहीं होना चाहिए था. इन्हें ऐसा लगता है कि हम कुछ कर नहीं सकते. लेकिन हमारा शरीर सिर्फ़ मिट्टी नहीं है. मैंने यही सोचकर जीना सीखा.
दृष्टिहीनता को रोड़ा नहीं माना
आजमगढ़ के राजेश को पढ़ना-लिखना शुरू से पसंद था. अपने भाइयों के साथ वह स्कूल जाने की जिद करते थे. मां भी उन्हें भेज देतीं, यह सोचकर कि चलो थोड़ा घूम आयेगा. राजेश ने ऐसे ही तीसरी तक की किताबें रट डाली. राजेश में शुरू से ही कुछ बनने की चाह थी और कुछ कर दिखाने का जज्बा भी. अपनी आंखों को कभी इन्होंने अपनी कमजोरी नहीं माना. वे जानते थे कि वो पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं.
लेकिन आजमगढ़ में इस तरह की कोई सुविधा नहीं थी. राजेश के परिवार में इनके माता-पिता के अलावा तीन भाई और दो बहन हैं. भाई-बहनों में सबसे बड़े राजेश ही यहां तक पहुंच पाये हैं. आसपास के लोगों और रिश्तेदारों को लगता था कि घर वालों को जिंदगी भर इनकी सहायता करनी होगी, लेकिन आज राजेश अपने पूरे परिवार का ध्यान रखते हैं. उनकी हर जरूरत को पूरा करते हैं.
जानकारी का अभाव
गांव के लोगों के पास जानकारी का अभाव है. साथ ही वहां व्यवस्था भी नहीं है. जो परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं उनकी स्थिति तो और भी खराब है. इसी कारण 10 वर्ष की उम्र में इनका दाखिला हुआ. वो भी तब, जब राजेश ने जिद की कि उन्हें पढ़ना है. वाराणसी में इस तरह के बच्चों के लिए विद्यालय है, यह जानकारी एक रिश्तेदार से मिलने पर राजेश के परिवार वालों ने उनका दाखिला करा दिया. वहां से हाईस्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद राजेश ने दिल्ली का रुख किया.
सीबीएसइ के सरकारी स्कूल में कम फ़ीस लगती थी और सुविधाएं भी दिल्ली में ज्यादा थी. फ़िर दिल्ली के हंसराज कॉलेज से बीए और एमए किया. इस बीच खाने और रहने के लिए उन्हें खासी जद्दोजहद करनी पड़ी. कम फ़ीस और खुला माहौल पाने के लिए राजेश ने जेएनयू का रुख किया. वहां से एमफ़िल और पीएचडी किया. 2008 में राजेश हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए.
आत्मविश्वास ने आगे बढ़ाया
स्टूडेंट एसोसिएशन में राजेश ने बहुत से काम किये. सामाजिक कार्यो में राजेश की ज्यादा दिलचस्पी है. बच्चों के साथ ये ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारते हैं. चाहे वे बच्चे उनके कॉलेज के हों या बाहर के, सभी उनसे मदद लेने आते हैं. राजेश को रामलीला के संवाद जुबानी याद है.
शिवाजी कॉलेज में लेक्चरर इनकी सहपाठी ज्योति कहतीं है कि राजेश में आत्मविश्वास बहुत ज्यादा है. हमें भी उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है. एक गरीब परिवार से दिल्ली आने वाले को कई तरह की परेशानियां ङोलनी पड़ती हैं. राजेश ने इन सभी को बहुत अच्छे से मैनेज किया.

Wednesday 21 September 2011

सिर्फ़ मेहनत नहीं, करें स्मार्ट मेहनत



मन लगाकर काम करने पर भी पता नहीं क्या हो जाता है कि काम समय पर पूरा ही नहीं हो पाता. अगर किसी तरह काम पूरा भी कर लूं, तो उसमें कुछ न कुछ ऐसी गलतियां हो जाती हैं कि बॉस संतुष्ट ही नहीं हो पाते. कितना भी काम करूं, पर उसका कुल-मिलाकर अंत अच्छा नहीं आता. यह समस्या है एक एडवरटाइजिंग कंपनी में काम कर रहे शेखर कुमार की.

वैसे, यह सिर्फ़ शेखर की समस्या नहीं है. बहुत से ऑफ़िस वर्कर ऐसी ही समस्या का सामना करते हैं. असल में
उन्हें समझना होगा कि सिर्फ़ मेहनत करने से कुछ नहीं होता. उन्हें स्मार्ट मेहनत की जरूरत होती है. आज के दौर में काम में मेहनत के साथ अगर स्मार्टनेस होगी, तभी आपकी वर्किंग लाइफ़ आसान हो पायेगी. नहीं तो मेहनत ज्यादा करते रहेंगे और नतीजा उससे कम मिलेगा.

1. काम को बखूबी पूरा करने के लिए जरूरी चीजों को समझे, उन तक पहुंचे. जिस प्रोजेक्ट पर काम चल रहा हो, उससे जुड़े हर पहलू पर नजर रखें. उसे अधिक से अधिक सूचनाप्रद बनाने की कोशिश करें.
2. काम शुरु करने से पहले उसका एक खाका तैयार करें. एक चीज को दो एंगल में या दो बार न लिखें, यह काम में गलती की वजह बन सकती है. इस तरीके को अपनाने से आप चीजों को भूलेंगे नहीं और जल्द से जल्द काम खत्म करते चले जाएंगे.
3. क्वालिटी पर खास ध्यान दें. काम निपटाने के लिए कोई शॉर्टकट न अपनाएं. थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए आसान ऑप्शन न अपनाएं.
4. अपने प्लान को फ़ॉलो करें. बेवजह उसमें फ़ेरबदल न करें. प्लानिंग के मुताबिक चलें. जब बहुत जरूरत हो, तो ही उसमें कुछ बदलाव करें. बार-बार प्लान बदलने से कंफ्यूजन हो सकता हैं. हां, अगर कोई चीज काम की क्वॉलिटी के साथ फ़िट नहीं बैठ पा रही हैं, तो उसमें जरूरी बदलाव लायें. वैसे, काम की बेहतरी के लिए फ्लैक्सिबिल बनने में कोई बुराई नहीं है.
5. सामने वाले की भी बात सुनें. हो सकता है वह आपको कोई सही सलाह दे रहा हो. उसको अच्छी तरह समझकर अपनाने की कोशिश करें.
6. कई बार डेडलाइन के प्रेशर के चलते काम को स्मार्ट तरीके से निपटाना बेहद मुश्किल हो जाता है. ऐसे में जरूरी है बैलेंस बनाकर चलने की. अगर आपको लगता है कि इस काम में दो हफ्ते लगेंगे तो पहले से ही सीनियर्स को बता दें. इससे आप पर किसी तरह का प्रेशर नहीं रहेगा और आप काम को सही तरह से कर पायेंगे.
7. अपने प्लान पर टिके रहें. कई बार आप पर बॉस अपने मुताबिक काम करने के लिए प्रेशर डालते हैं. ऐन मौके पर किसी के मुताबिक अपना प्लान चेंज न करें. पहले उनके लॉजिक को अच्छी तरह समझे, उसके बाद ही उस पर काम करें.
8. निर्धारित समय के मुताबिक काम पूरा करें. बॉस को यह विश्वास दिलाएं कि आपने जो कहा है वह आप पूरा करेंगे. इसके लिए प्लानिंग के अनुसार काम को अंजाम देना बेहद जरूरी है.

Tuesday 20 September 2011

दौड़ में रहना है तो शामिल हों जेनरेशन-वाइ में



जेनरेशन-वाइ, इन दिनों ऑफ़िस कल्चर का अहम हिस्सा है. उनसे डील करने के लिए एचआर मैनजर्स को नयी पॉलिसियां तैयार करनी पड़ रही हैं, क्योंकि उनकी जरूरतें और काम का तरीका काफ़ी हट कर है. जेनेरेशन-वाइ युवा हैं, स्मार्ट हैं और जबर्दस्त महत्वाकांक्षी भी. उन्हें कैजुअल परिधानों में ऑफ़िस जाना कभी नहीं अखरता.
स्मार्ट फ़ोन के बिना उनका काम नहीं चलता. उनकी डेस्क पर बजता म्यूजिक उनकी पहचान है, तो दोस्तों के साथ ऑनलाइन रहना उनकी दोस्ती की शान है. इन सबके बीच वे अपना काम भी बखूबी करना जानते हैं.कुछ ही समय पहले जेनरेशन-एक्स का बोलबाला हुआ करता था, लेकिन जेनरेशन-वाइ ने उसे भी पीछे कर दिया है. कॉलेजों से निकल कर यह जेनरेशन अब ऑफ़िसों में भी अपना हुनर दिखा रही है. विशेषज्ञ मानते हैं कि इन पीढ़ी के युवा अपनी कौशल से ऑफ़िस कल्चर में भी काफ़ी बदलाव ला रहे हैं. जेनरेशन-वाइ बहुत नेटवक्र्ड और इंफ़ॉर्म्ड है. इनके पास सूचनाओं और तकनीकों का भंडार है. इन्हें आजादी चाहिए और फ्लेक्िसबिलिटी भी. तकनीक में आगे होने के साथ-साथ यह पीढ़ी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियां भी जानती है. इनमें इतना आत्मविश्वास है कि ये सही जॉब मिलने तक जॉब हंटिंग करते रहते हैं. एक प्रतिष्ठित कंपनी के एचआर मैनेजर जय कुमार का कहना है कि जेनरेशन-वाइ को केवल पैसे से मतलब नहीं होता, बल्कि वे ह्यूमर, पैशन और सच से भी पूरा वास्ता रखते हैं. वे अपनी क्षमताओं को बढ़ाने में विश्वास रखते हैं. नयी चुनौतियां स्वीकार करते हैं, ज्यादा जिम्मेदारियां लेने को तैयार हैं, अपनी उपलब्धियों के लिए पहचान और पुरस्कार भी चाहते हैं. आज सैलरी पैकेज नहीं जॉब संतुष्टि चाहिए.
एचआर के लिए दिक्कत
जेनरेशन-वाइ को संभालने में एचआर मैनेजरों को खासी मेहनत करनी होती है, क्योंकि उनकी उम्मीदें अन्य एंप्लॉयज के मुकाबले कुछ अलग होती हैं. विचारधारा में अंतर के चलते कई बार मैनेजमेंट और नये एंप्लॉय के बीच बहस जैसी स्थिति भी पैदा हो जाती है.
समय के साथ बदलना होगा
विशेषज्ञों का मानना है कि मैनेजर्स खुद भी जेनरेशन-वाइ के नजरिये से सोचेंगे, तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. कई कंपनियां अपने यहां काम के माहौल को नये वर्कफ़ोर्स के हिसाब से बदल रही हैं. यह सही है. ऐसा करने से ही बेहतर और अच्छा काम हो सकता है.000खुद को देखें ब्रांड की तरहजेनरेशन-वाइ के लोग खुद को एक ब्रांड की तरह देखते हैं. अपनी ब्रांड इमेज को लेकर काफ़ी सजग रहते हैं. इस इमेज को बेहतर बनाने के लिए वे कोई मौका नहीं छोड़ते. इस पीढ़ी के लोग सीखने के नये तरीकों, मसलन, ई-लर्निग में पुराने लोगों की अपेक्षा ज्यादा रूचि लेते हैं. वे अपनी प्रोडक्‍टिविटि में सुधार के लिए हर तकनीक से ज्यादा से ज्यादा हासिल करना चाहते हैं.
करें हैंडल जेनरेशन-वाइ को
एचआर मैनेजर जय कुमार कहते हैं कि जेनरेशन-वाइ को थोड़ी तरकीब से मैनेज करना चाहिए, क्योंकि जमाना बदल रहा है. जेनरेशन-वाइ का फ़ेवरिट ट्रेंड सैलरी पैकेज, कम्यूनिकेशन स्टाइल, मैनेजमेंट ट्रेनिंग, लाइफ़स्टाल बेनिफ़िट और डिस्ट्रिब्यूटेड वर्क एन्वायरनमेंट से जुड़ा हुआ है. उन्हें अपने काम के लिए अभी पहचान चाहिए. जो कंपनियां उन्हें आजादी देती हैं, जेनरेशन-वाइ उन्हीं के साथ रहना चाहती है. यदि आज के हर एंप्लॉयी और एंप्लॉयर जेनरेशन-वाइ की तरह खुद को विकसित करें, तो परिणाम निश्चित रूप से काफ़ी बेहतर होगा. आज जेनरेशन-वाइ की पसंद वे कंपनियां हैं, जहां ज्ञान को साझा किया जाता हो, तुरंत एक्शन लिया जाता हो और नये काम करने के मौके मिलते हों.

Friday 16 September 2011

नौकरी नहीं करूंगा, नौकरी दूंगा



नवोदय विद्यालय के एक छात्र के संघर्ष और सफलता की कहानी.
मध्यप्रदेश के दतिया जिले में पैदा हुए आलोक लिटोरिया ने बारहवीं तक की पढ़ाई नवोदय विद्यालय दतिया और शिवपुरी से पूरी की. बीकॉम, बीलिब्स और एमलिब्स बुंदेलखंड विश्वविद्यालय से की. उन्होंने एक साल पहले अपनी कंपनी निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम की शुरुआत की है. आज वह किसी संस्थान में नौकरी करने के बजाय औरों को नौकरी दे रहे हैं.

मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले आलोक ने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन वह खुद का बिजनेस करेंगे. ओर्थक स्थिति अच्छी न होने के कारण उन्हें अपने कई सपनों का गला घोटना पड़ा. अंत में उन्होंने निश्चय किया कि अब और नहीं, अब वक्त है देश के लिए कुछ करने का. देश की उन्नति में सहायक बनने का. इसके लिए आलोक ने रोजगार की कमी को हटाने में कुछ सहयोग देने का फ़ैसला किया और उनके इस फ़ैसले ने ही निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम को जन्म दिया.
शुरुआती दौर
नवोदय ने मुझमें चीजों से डरने की नहीं, लड़ने की क्षमता का विकास किया. प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही मेरे पिताजी का देहांत हो गया था. मैं घर में सबसे बड़ा था इसलिए ज्यादा सोचता था पर पढ़ाई बीच में छोड़ नहीं सकता था. बारहवीं की पढ़ाई के बाद मैंने  बीकॉम किया. इसके बाद बुंदेलखंड विश्वविद्यालय से बैचलर्स इन लाइब्रेरी साइंस और मास्टर्स ऑफ़ लाइब्ररी साइंस की पढ़ाई पूरी की.
सिविल सर्विस पास करना चाहता था...
मैं आइएएस बनना चाहता था. काफ़ी कोशिशों के बाद मैंने दिल्ली आने का निश्चय किया. कुछ समय के लिए इसकी तैयारी की. कोचिंग भी ज्वॉइन की लेकिन ओर्थक स्थिति आड़े आ गयी. मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि मैं कोचिंग कर सकं. परिवार को भी देखना था इसलिए मुङो अपने इस सपने को भूलना पड़ा. इसके बाद मैं नौकरी करने लगा.
पहली नौकरी
दिल्ली में ही मैंने एग्जीक्यूटिव के रूप में आइसीआइसीआइ बैंक में काम किया. मेरी पहली तनख्वाह सात हजार सात सौ पचास रुपये थी लेकिन इस वक्त तक मैंने सोच लिया था कि अब तो मुङो नौकरी ही करनी है. इसके बाद मैं लगातार नौकरियां बदलता रहा.
सफ़र यूं ही चलता रहा...
घर में पैसे देना, दिल्ली में रह कर अपना खर्च निकालना. उस पर मेरी नौकरी फ़ील्ड की थी तो ज्यादा पैसे खर्च होते थे. इन परिस्थितियों में मेरा नौकरी बदलना काफ़ी जरूरी था. मैंने नौकरी बदली. बिरला सनलाइफ़ में एजेंसी मैंनेजर के रूप में सात महीने काम किया. इसके बाद फ्यूचर ग्रुप में सेल्स मैनेजर के रूप में एक साल तक काम किया. इस वक्त मुङो करीब 34 हजार रुपये महीने मिलने लगे थे. इसके बाद मैंने माउंट विजन नेटवर्क कंपनी में काम किया. यह प्रोडक्ट्स की कंपनी थी, साथ में बल्क मैसेज का काम भी करती थी. मैंने इस कंपनीमें रीजनल मैनेजर के रूप में काम किया. यहां मुङो करीब 45 हजार रुपये महीने मिलते थे. इस कंपनी में काम करते हुए मुङो महसूस हुआ कि बल्क मैसेजिंग का काम काफ़ी अच्छा और इंटेरेस्टिंग है. मुङो इसका अपना काम करना चाहिए.
बिजनेस के प्रेरणा स्रोत बने धीरूभाई अंबानी
बिजनेस के बारे में सोचने पर मुङो धीरूभाई अंबानी  प्रेरित करते थे. उन्होंने लोगों के लिए काम किया. देश के युवाओं को रोजगार दिया इसलिए मैंने सोचा कि मैं भी ऐसा ही बिजनेस करूंगा, जिससे देश को मदद मिल सके. अगर खुद ही नौकरी करता रहूंगा तो औरों को रोजगार कैसे दूंगा.
निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम की शुरुआत
मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं थे. मैंने पार्टनरशिप में बिजनेस शुरू किया. मेरे पार्टनर का नाम है आनंद पांडे. पहले की बचत से बिजनेस की शुरुआत की. शुरू में 20,000 का निवेश किया. 2010 सितंबर में जब हमने अपनी कंपनी की शुरुआत की तो हमारे पास कोई ऑफ़िस नहीं था. फ़िर हमने लक्ष्मी नगर, दिल्ली में अपना ऑफ़िस बनाया. आज हमें महीने में 80 हजार से एक लाख रुपये का रिटर्न मिलने लगा है. इस वक्त हम अपनी कंपनी के माध्यम से पांच और लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं. यह कंपनी बल्क मैसेज का काम करती है.
मन में डर था
मेरे इरादे पक्के थे लेकिन मन में इस बात का डर था कि अगर बिजनेस नहीं चला तो क्या करूंगा. इतने पैकेज वाली नौकरी छोड़ी है, दोबारा मिलेगी कि नहीं. मेरे घर की ओर्थक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए अपने विचारों को घर में नहीं बांट सकता था. मुङो औरों से ज्यादा सपोर्ट नहीं मिला, लेकिन मेरे दोस्तों ने मुङो बहुत प्रोत्साहित किया.
बिजनेस आसान नहीं
बिजनेस करना आसान नहीं है. इसमें दिखावे के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है, जो कि जरूरी भी है. लोग हमारी तरफ़ आकर्षित हों, हमारे साथ काम करें, इसके लिए पैसे खर्च करने होते हैं. अच्छा काम करने के लिए टीम को संतुष्ट रखना भी बहुत जरूरी होता है. आपके पास पैसे हों या नहीं इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन आपके साथ जो लोग काम कर रहे हैं, उन्हें समय से सैलरी देना जरूरी होता है. इसके लिए कई तरह की दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है.

टेंशन दूर करता है मोटीवेशन
बिजनेस में कई तरह की परेशानियां आती हैं. यही परेशानियां हमें प्रोत्साहित भी करती हैं. हमने निश्चल केयर सोसाइटी के नाम से एक एनजीओ भी खोला है. इसके तहत हम गरीब बच्चों को मुफ्त मेडिकल सुविधा देते हैं

आइंस्टीन भी हुए थे फेल



पिछली सदी के दो बड़े नाम पूछे जाएं, तो सहज ही महात्मा गांधी व आइंस्टीन के नाम आयेंगे. दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे. आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था. स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा.

बड़े होने पर वह पॉलीटेक्निक इंस्टीच्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये. हालांकि, उन्हें भौतिकी में अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए. अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या दुनिया आज यहां होती. उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फिजिक्स कहा जाता है. जिंदगी के किसी एक मोड़ पर असफलता मिलते ही आत्मघाती कदम उठाने वाले युवा आइंस्टीन से सीख सकते हैं. युवाओं को सही दिशा देने में अभिभावकों व शिक्षकों की भी अहम भूमिका है. हमारे यहां बुद्धिमता के बस दो पैमाने हैं-पहला मौखिक (वर्बल), जिसमें सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए सवाल हल किये जाते हैं व दूसरा गणित या विज्ञान. देर से ही सही अमेरिकी मनोविज्ञानी गार्डनर के विविध बुध्दिमता के सिद्धांत को बिहार के स्कूलों में भी अपनाया जा रहा है. गार्डनर ने बताया कि बुद्धिमता आठ तरह की होती है. इसीलिए गणित या अंगरेजी में फेल हों या आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में असफलता मिले, तो हार न मानें. असफलता तो सफलता की सीढ़ी है. आइंस्टीन ने भी यही माना और अपने परिवार,पड़ोसी व गुरु जी को गलत साबित कर दिया. जो मानते हैं कि आप जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते, उन्हें आप भी गलत साबित कर सकते हैं.

Wednesday 14 September 2011

दो बार फेल हुए थे गणितज्ञ रामानुजन



देश के महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन 12वीं में दो बार फेल हुए. उनका वजीफा बंद हो गया. उन्हें क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी. इससे पहले उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पहले दरजे से पास की थी. जिस गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ते हुए वे दो बार फेल हुए, बाद में उस कॉलेज का नाम बदल कर उनके नाम पर ही रखा गया.

पटना सहित कई शहरों में उनके नाम पर शिक्षण संस्थान हैं. तब उनकी प्रतिभा को समझनेवाले लोग देश में नहीं थे. उन्होंने तब के बड़े गणितज्ञ जीएच हार्डी को अपना पेपर भेजा. इसमें 120 थ्योरम (प्रमेय) थे. उन्हें कैंब्रिज से बुलावा आया. फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी से सम्मानित किया गया. उनके सूत्र कई वैज्ञानिक खोजों में मददगार बने.

अगर रामानुजन 12वीं में फेल होने पर निराश हो गये होते, तो कल्पना कीजिए, दुनिया को कितना बड़ा नुकसान होता. ठीक है, सभी रामानुजन नहीं हो सकते, पर यह भी अकाट्य सत्य है कि हर किसी कि अपनी विशिष्टता है. इस विशिष्टता का व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्य भी है. इसे नष्ट नहीं, बल्कि पहचानने व मांजने की जरत है.

फ्रांस के इमाइल दुर्खीम आत्महत्या पर शोध करनेवाले पहले आधुनिक समाज विज्ञानी हैं.1897 में उन्होंने इसके तीन कारण बताये, जिनमें पहला है आत्मकेंद्रित होना. व्यक्ति का समाज से कट जाना. जिंदगी को अकेलेपन में धकेलने के बदले, आइए हम खुद को सतरंगी समाज का अंग बना दें.

महात्मा गांधी को भी आये थे कम नंबर



दुनिया की सबसे डरावनी बीमारी का नाम कैंसर है. कैंसर अगर गंभीर स्तर पर पहुंच गया है, तब तो लोग मान बैठते हैं कि मौत बस चंद दिनों की बात है. पर, क्या किसी ने कैंसर पीड़ित व्यक्‍ति को आत्महत्या करते सुना है. उदाहरण खोजना मुश्किल होगा. वह सामने खड़े यमराज से ओखरी सांस तक लड़ता है.
वहीं हम आसपास फूल-से किशोरों या स्वस्थ युवकों को आत्महत्या करते पाते हैं. हाल में एक छात्र ने सुसाइडल नोट में लिखा-सॉरी पापा, मैं आपके सपने को पूरा नहीं कर पाया.

जिस छात्र ने अपने बारे में ऐसा मूल्यांकन किया, उसने खुद को पहचानने में भूल की. शायद उसे नहीं मालूम था कि जिस आदमी ने मानवता का नया इतिहास लिख दिया, वही आदमी आठवीं कक्षा में इतिहास में बेहद कमजोर था. जी हां, हम बात कर रहे हैं महात्मा गांधी की. उन्हें इतिहास में कम नंबर आते थे, पर वह अपने कर्मो से ऐतिहासिक बन गये.

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि आदमी को अपनी प्रतिभा की तुलना कभी अपने कॉलेज के रिपोर्ट कार्ड से नहीं करनी चाहिए. आत्महत्या कायरता है. काश, उस युवक ने लिखा होता, सॉरी पापा, मेरे कम नंबर आये, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा. मैं अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दुनिया को सुंदर बनाने में करना चाहता हूं. अपना छोटा-सा ही सही, लेकिन योगदान देना चाहता हूं.