Thursday, 22 September 2011

आत्मविश्वास हो तो सफ़लता मिलेगी ही



मुश्किलों से पार पाने का जज्बा हो तो सफ़लता कदम चूमेगी ही. राजेश कुमार ने इसी तथ्य को सूत्र मानकर जिंदगी जी है. कभी परिवार को लगता था कि राजेश भाई-बहनों के सहारे ही अपना पूरा जीवन गुजारेंगे, लेकिन आत्मविश्वास के बूते उन्होंने न केवल खुद मंजिल पायी है बल्कि अपने परिवार को भी सहारा दे रहे हैं. इस तरह वे युवाओं के लिए एक मिसाल बन गये हैं.
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती. किसी के सहारे पर जीने वाला यदि मन में ठान ले तो एक दिन खुद भी लोगों का सहारा बन सकता है. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं राजेश कुमार. राजेश दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. आज इन्हें किसी चीज की कमी नहीं है. लेकिन उनकी ऐसी स्थिति हमेशा से नहीं थी.
पुराने मिथ को तोड़ा
तीन साल की उम्र में आर्थिक तंगी ने राजेश की आंखों की रोशनी छीन ली. पूर्वी उत्तर प्रदेश में मस्तिष्क ज्वर बहुत फ़ैलता है. राजेश भी इसी के शिकार हुए. झोलाछाप डॉक्टरों के इलाज ने इनकी जिंदगी ही बदल डाली. डॉक्टरों ने बुखार तो उतार दिया, लेकिन इनकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए छीन ली. परिवार वाले हार गये और यह सोचकर बैठ गये कि इनको अपने भाई-बहन के आश्रय पर रहना पड़ेगा.
राजेश कहते हैं कि पूर्वाचल में कहीं भी चले जाओ, वहां एक तरह का मिथ मौजूद है कि हम जैसे लोगों की जिंदगी खराब हो गयी. हमें पैदा ही नहीं होना चाहिए था. इन्हें ऐसा लगता है कि हम कुछ कर नहीं सकते. लेकिन हमारा शरीर सिर्फ़ मिट्टी नहीं है. मैंने यही सोचकर जीना सीखा.
दृष्टिहीनता को रोड़ा नहीं माना
आजमगढ़ के राजेश को पढ़ना-लिखना शुरू से पसंद था. अपने भाइयों के साथ वह स्कूल जाने की जिद करते थे. मां भी उन्हें भेज देतीं, यह सोचकर कि चलो थोड़ा घूम आयेगा. राजेश ने ऐसे ही तीसरी तक की किताबें रट डाली. राजेश में शुरू से ही कुछ बनने की चाह थी और कुछ कर दिखाने का जज्बा भी. अपनी आंखों को कभी इन्होंने अपनी कमजोरी नहीं माना. वे जानते थे कि वो पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं.
लेकिन आजमगढ़ में इस तरह की कोई सुविधा नहीं थी. राजेश के परिवार में इनके माता-पिता के अलावा तीन भाई और दो बहन हैं. भाई-बहनों में सबसे बड़े राजेश ही यहां तक पहुंच पाये हैं. आसपास के लोगों और रिश्तेदारों को लगता था कि घर वालों को जिंदगी भर इनकी सहायता करनी होगी, लेकिन आज राजेश अपने पूरे परिवार का ध्यान रखते हैं. उनकी हर जरूरत को पूरा करते हैं.
जानकारी का अभाव
गांव के लोगों के पास जानकारी का अभाव है. साथ ही वहां व्यवस्था भी नहीं है. जो परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं उनकी स्थिति तो और भी खराब है. इसी कारण 10 वर्ष की उम्र में इनका दाखिला हुआ. वो भी तब, जब राजेश ने जिद की कि उन्हें पढ़ना है. वाराणसी में इस तरह के बच्चों के लिए विद्यालय है, यह जानकारी एक रिश्तेदार से मिलने पर राजेश के परिवार वालों ने उनका दाखिला करा दिया. वहां से हाईस्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद राजेश ने दिल्ली का रुख किया.
सीबीएसइ के सरकारी स्कूल में कम फ़ीस लगती थी और सुविधाएं भी दिल्ली में ज्यादा थी. फ़िर दिल्ली के हंसराज कॉलेज से बीए और एमए किया. इस बीच खाने और रहने के लिए उन्हें खासी जद्दोजहद करनी पड़ी. कम फ़ीस और खुला माहौल पाने के लिए राजेश ने जेएनयू का रुख किया. वहां से एमफ़िल और पीएचडी किया. 2008 में राजेश हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए.
आत्मविश्वास ने आगे बढ़ाया
स्टूडेंट एसोसिएशन में राजेश ने बहुत से काम किये. सामाजिक कार्यो में राजेश की ज्यादा दिलचस्पी है. बच्चों के साथ ये ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारते हैं. चाहे वे बच्चे उनके कॉलेज के हों या बाहर के, सभी उनसे मदद लेने आते हैं. राजेश को रामलीला के संवाद जुबानी याद है.
शिवाजी कॉलेज में लेक्चरर इनकी सहपाठी ज्योति कहतीं है कि राजेश में आत्मविश्वास बहुत ज्यादा है. हमें भी उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है. एक गरीब परिवार से दिल्ली आने वाले को कई तरह की परेशानियां ङोलनी पड़ती हैं. राजेश ने इन सभी को बहुत अच्छे से मैनेज किया.

Wednesday, 21 September 2011

सिर्फ़ मेहनत नहीं, करें स्मार्ट मेहनत



मन लगाकर काम करने पर भी पता नहीं क्या हो जाता है कि काम समय पर पूरा ही नहीं हो पाता. अगर किसी तरह काम पूरा भी कर लूं, तो उसमें कुछ न कुछ ऐसी गलतियां हो जाती हैं कि बॉस संतुष्ट ही नहीं हो पाते. कितना भी काम करूं, पर उसका कुल-मिलाकर अंत अच्छा नहीं आता. यह समस्या है एक एडवरटाइजिंग कंपनी में काम कर रहे शेखर कुमार की.

वैसे, यह सिर्फ़ शेखर की समस्या नहीं है. बहुत से ऑफ़िस वर्कर ऐसी ही समस्या का सामना करते हैं. असल में
उन्हें समझना होगा कि सिर्फ़ मेहनत करने से कुछ नहीं होता. उन्हें स्मार्ट मेहनत की जरूरत होती है. आज के दौर में काम में मेहनत के साथ अगर स्मार्टनेस होगी, तभी आपकी वर्किंग लाइफ़ आसान हो पायेगी. नहीं तो मेहनत ज्यादा करते रहेंगे और नतीजा उससे कम मिलेगा.

1. काम को बखूबी पूरा करने के लिए जरूरी चीजों को समझे, उन तक पहुंचे. जिस प्रोजेक्ट पर काम चल रहा हो, उससे जुड़े हर पहलू पर नजर रखें. उसे अधिक से अधिक सूचनाप्रद बनाने की कोशिश करें.
2. काम शुरु करने से पहले उसका एक खाका तैयार करें. एक चीज को दो एंगल में या दो बार न लिखें, यह काम में गलती की वजह बन सकती है. इस तरीके को अपनाने से आप चीजों को भूलेंगे नहीं और जल्द से जल्द काम खत्म करते चले जाएंगे.
3. क्वालिटी पर खास ध्यान दें. काम निपटाने के लिए कोई शॉर्टकट न अपनाएं. थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए आसान ऑप्शन न अपनाएं.
4. अपने प्लान को फ़ॉलो करें. बेवजह उसमें फ़ेरबदल न करें. प्लानिंग के मुताबिक चलें. जब बहुत जरूरत हो, तो ही उसमें कुछ बदलाव करें. बार-बार प्लान बदलने से कंफ्यूजन हो सकता हैं. हां, अगर कोई चीज काम की क्वॉलिटी के साथ फ़िट नहीं बैठ पा रही हैं, तो उसमें जरूरी बदलाव लायें. वैसे, काम की बेहतरी के लिए फ्लैक्सिबिल बनने में कोई बुराई नहीं है.
5. सामने वाले की भी बात सुनें. हो सकता है वह आपको कोई सही सलाह दे रहा हो. उसको अच्छी तरह समझकर अपनाने की कोशिश करें.
6. कई बार डेडलाइन के प्रेशर के चलते काम को स्मार्ट तरीके से निपटाना बेहद मुश्किल हो जाता है. ऐसे में जरूरी है बैलेंस बनाकर चलने की. अगर आपको लगता है कि इस काम में दो हफ्ते लगेंगे तो पहले से ही सीनियर्स को बता दें. इससे आप पर किसी तरह का प्रेशर नहीं रहेगा और आप काम को सही तरह से कर पायेंगे.
7. अपने प्लान पर टिके रहें. कई बार आप पर बॉस अपने मुताबिक काम करने के लिए प्रेशर डालते हैं. ऐन मौके पर किसी के मुताबिक अपना प्लान चेंज न करें. पहले उनके लॉजिक को अच्छी तरह समझे, उसके बाद ही उस पर काम करें.
8. निर्धारित समय के मुताबिक काम पूरा करें. बॉस को यह विश्वास दिलाएं कि आपने जो कहा है वह आप पूरा करेंगे. इसके लिए प्लानिंग के अनुसार काम को अंजाम देना बेहद जरूरी है.

Tuesday, 20 September 2011

दौड़ में रहना है तो शामिल हों जेनरेशन-वाइ में



जेनरेशन-वाइ, इन दिनों ऑफ़िस कल्चर का अहम हिस्सा है. उनसे डील करने के लिए एचआर मैनजर्स को नयी पॉलिसियां तैयार करनी पड़ रही हैं, क्योंकि उनकी जरूरतें और काम का तरीका काफ़ी हट कर है. जेनेरेशन-वाइ युवा हैं, स्मार्ट हैं और जबर्दस्त महत्वाकांक्षी भी. उन्हें कैजुअल परिधानों में ऑफ़िस जाना कभी नहीं अखरता.
स्मार्ट फ़ोन के बिना उनका काम नहीं चलता. उनकी डेस्क पर बजता म्यूजिक उनकी पहचान है, तो दोस्तों के साथ ऑनलाइन रहना उनकी दोस्ती की शान है. इन सबके बीच वे अपना काम भी बखूबी करना जानते हैं.कुछ ही समय पहले जेनरेशन-एक्स का बोलबाला हुआ करता था, लेकिन जेनरेशन-वाइ ने उसे भी पीछे कर दिया है. कॉलेजों से निकल कर यह जेनरेशन अब ऑफ़िसों में भी अपना हुनर दिखा रही है. विशेषज्ञ मानते हैं कि इन पीढ़ी के युवा अपनी कौशल से ऑफ़िस कल्चर में भी काफ़ी बदलाव ला रहे हैं. जेनरेशन-वाइ बहुत नेटवक्र्ड और इंफ़ॉर्म्ड है. इनके पास सूचनाओं और तकनीकों का भंडार है. इन्हें आजादी चाहिए और फ्लेक्िसबिलिटी भी. तकनीक में आगे होने के साथ-साथ यह पीढ़ी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियां भी जानती है. इनमें इतना आत्मविश्वास है कि ये सही जॉब मिलने तक जॉब हंटिंग करते रहते हैं. एक प्रतिष्ठित कंपनी के एचआर मैनेजर जय कुमार का कहना है कि जेनरेशन-वाइ को केवल पैसे से मतलब नहीं होता, बल्कि वे ह्यूमर, पैशन और सच से भी पूरा वास्ता रखते हैं. वे अपनी क्षमताओं को बढ़ाने में विश्वास रखते हैं. नयी चुनौतियां स्वीकार करते हैं, ज्यादा जिम्मेदारियां लेने को तैयार हैं, अपनी उपलब्धियों के लिए पहचान और पुरस्कार भी चाहते हैं. आज सैलरी पैकेज नहीं जॉब संतुष्टि चाहिए.
एचआर के लिए दिक्कत
जेनरेशन-वाइ को संभालने में एचआर मैनेजरों को खासी मेहनत करनी होती है, क्योंकि उनकी उम्मीदें अन्य एंप्लॉयज के मुकाबले कुछ अलग होती हैं. विचारधारा में अंतर के चलते कई बार मैनेजमेंट और नये एंप्लॉय के बीच बहस जैसी स्थिति भी पैदा हो जाती है.
समय के साथ बदलना होगा
विशेषज्ञों का मानना है कि मैनेजर्स खुद भी जेनरेशन-वाइ के नजरिये से सोचेंगे, तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. कई कंपनियां अपने यहां काम के माहौल को नये वर्कफ़ोर्स के हिसाब से बदल रही हैं. यह सही है. ऐसा करने से ही बेहतर और अच्छा काम हो सकता है.000खुद को देखें ब्रांड की तरहजेनरेशन-वाइ के लोग खुद को एक ब्रांड की तरह देखते हैं. अपनी ब्रांड इमेज को लेकर काफ़ी सजग रहते हैं. इस इमेज को बेहतर बनाने के लिए वे कोई मौका नहीं छोड़ते. इस पीढ़ी के लोग सीखने के नये तरीकों, मसलन, ई-लर्निग में पुराने लोगों की अपेक्षा ज्यादा रूचि लेते हैं. वे अपनी प्रोडक्‍टिविटि में सुधार के लिए हर तकनीक से ज्यादा से ज्यादा हासिल करना चाहते हैं.
करें हैंडल जेनरेशन-वाइ को
एचआर मैनेजर जय कुमार कहते हैं कि जेनरेशन-वाइ को थोड़ी तरकीब से मैनेज करना चाहिए, क्योंकि जमाना बदल रहा है. जेनरेशन-वाइ का फ़ेवरिट ट्रेंड सैलरी पैकेज, कम्यूनिकेशन स्टाइल, मैनेजमेंट ट्रेनिंग, लाइफ़स्टाल बेनिफ़िट और डिस्ट्रिब्यूटेड वर्क एन्वायरनमेंट से जुड़ा हुआ है. उन्हें अपने काम के लिए अभी पहचान चाहिए. जो कंपनियां उन्हें आजादी देती हैं, जेनरेशन-वाइ उन्हीं के साथ रहना चाहती है. यदि आज के हर एंप्लॉयी और एंप्लॉयर जेनरेशन-वाइ की तरह खुद को विकसित करें, तो परिणाम निश्चित रूप से काफ़ी बेहतर होगा. आज जेनरेशन-वाइ की पसंद वे कंपनियां हैं, जहां ज्ञान को साझा किया जाता हो, तुरंत एक्शन लिया जाता हो और नये काम करने के मौके मिलते हों.

Friday, 16 September 2011

नौकरी नहीं करूंगा, नौकरी दूंगा



नवोदय विद्यालय के एक छात्र के संघर्ष और सफलता की कहानी.
मध्यप्रदेश के दतिया जिले में पैदा हुए आलोक लिटोरिया ने बारहवीं तक की पढ़ाई नवोदय विद्यालय दतिया और शिवपुरी से पूरी की. बीकॉम, बीलिब्स और एमलिब्स बुंदेलखंड विश्वविद्यालय से की. उन्होंने एक साल पहले अपनी कंपनी निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम की शुरुआत की है. आज वह किसी संस्थान में नौकरी करने के बजाय औरों को नौकरी दे रहे हैं.

मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले आलोक ने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन वह खुद का बिजनेस करेंगे. ओर्थक स्थिति अच्छी न होने के कारण उन्हें अपने कई सपनों का गला घोटना पड़ा. अंत में उन्होंने निश्चय किया कि अब और नहीं, अब वक्त है देश के लिए कुछ करने का. देश की उन्नति में सहायक बनने का. इसके लिए आलोक ने रोजगार की कमी को हटाने में कुछ सहयोग देने का फ़ैसला किया और उनके इस फ़ैसले ने ही निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम को जन्म दिया.
शुरुआती दौर
नवोदय ने मुझमें चीजों से डरने की नहीं, लड़ने की क्षमता का विकास किया. प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही मेरे पिताजी का देहांत हो गया था. मैं घर में सबसे बड़ा था इसलिए ज्यादा सोचता था पर पढ़ाई बीच में छोड़ नहीं सकता था. बारहवीं की पढ़ाई के बाद मैंने  बीकॉम किया. इसके बाद बुंदेलखंड विश्वविद्यालय से बैचलर्स इन लाइब्रेरी साइंस और मास्टर्स ऑफ़ लाइब्ररी साइंस की पढ़ाई पूरी की.
सिविल सर्विस पास करना चाहता था...
मैं आइएएस बनना चाहता था. काफ़ी कोशिशों के बाद मैंने दिल्ली आने का निश्चय किया. कुछ समय के लिए इसकी तैयारी की. कोचिंग भी ज्वॉइन की लेकिन ओर्थक स्थिति आड़े आ गयी. मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि मैं कोचिंग कर सकं. परिवार को भी देखना था इसलिए मुङो अपने इस सपने को भूलना पड़ा. इसके बाद मैं नौकरी करने लगा.
पहली नौकरी
दिल्ली में ही मैंने एग्जीक्यूटिव के रूप में आइसीआइसीआइ बैंक में काम किया. मेरी पहली तनख्वाह सात हजार सात सौ पचास रुपये थी लेकिन इस वक्त तक मैंने सोच लिया था कि अब तो मुङो नौकरी ही करनी है. इसके बाद मैं लगातार नौकरियां बदलता रहा.
सफ़र यूं ही चलता रहा...
घर में पैसे देना, दिल्ली में रह कर अपना खर्च निकालना. उस पर मेरी नौकरी फ़ील्ड की थी तो ज्यादा पैसे खर्च होते थे. इन परिस्थितियों में मेरा नौकरी बदलना काफ़ी जरूरी था. मैंने नौकरी बदली. बिरला सनलाइफ़ में एजेंसी मैंनेजर के रूप में सात महीने काम किया. इसके बाद फ्यूचर ग्रुप में सेल्स मैनेजर के रूप में एक साल तक काम किया. इस वक्त मुङो करीब 34 हजार रुपये महीने मिलने लगे थे. इसके बाद मैंने माउंट विजन नेटवर्क कंपनी में काम किया. यह प्रोडक्ट्स की कंपनी थी, साथ में बल्क मैसेज का काम भी करती थी. मैंने इस कंपनीमें रीजनल मैनेजर के रूप में काम किया. यहां मुङो करीब 45 हजार रुपये महीने मिलते थे. इस कंपनी में काम करते हुए मुङो महसूस हुआ कि बल्क मैसेजिंग का काम काफ़ी अच्छा और इंटेरेस्टिंग है. मुङो इसका अपना काम करना चाहिए.
बिजनेस के प्रेरणा स्रोत बने धीरूभाई अंबानी
बिजनेस के बारे में सोचने पर मुङो धीरूभाई अंबानी  प्रेरित करते थे. उन्होंने लोगों के लिए काम किया. देश के युवाओं को रोजगार दिया इसलिए मैंने सोचा कि मैं भी ऐसा ही बिजनेस करूंगा, जिससे देश को मदद मिल सके. अगर खुद ही नौकरी करता रहूंगा तो औरों को रोजगार कैसे दूंगा.
निश्चयसॉल्यूशनडॉटकॉम की शुरुआत
मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं थे. मैंने पार्टनरशिप में बिजनेस शुरू किया. मेरे पार्टनर का नाम है आनंद पांडे. पहले की बचत से बिजनेस की शुरुआत की. शुरू में 20,000 का निवेश किया. 2010 सितंबर में जब हमने अपनी कंपनी की शुरुआत की तो हमारे पास कोई ऑफ़िस नहीं था. फ़िर हमने लक्ष्मी नगर, दिल्ली में अपना ऑफ़िस बनाया. आज हमें महीने में 80 हजार से एक लाख रुपये का रिटर्न मिलने लगा है. इस वक्त हम अपनी कंपनी के माध्यम से पांच और लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं. यह कंपनी बल्क मैसेज का काम करती है.
मन में डर था
मेरे इरादे पक्के थे लेकिन मन में इस बात का डर था कि अगर बिजनेस नहीं चला तो क्या करूंगा. इतने पैकेज वाली नौकरी छोड़ी है, दोबारा मिलेगी कि नहीं. मेरे घर की ओर्थक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए अपने विचारों को घर में नहीं बांट सकता था. मुङो औरों से ज्यादा सपोर्ट नहीं मिला, लेकिन मेरे दोस्तों ने मुङो बहुत प्रोत्साहित किया.
बिजनेस आसान नहीं
बिजनेस करना आसान नहीं है. इसमें दिखावे के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है, जो कि जरूरी भी है. लोग हमारी तरफ़ आकर्षित हों, हमारे साथ काम करें, इसके लिए पैसे खर्च करने होते हैं. अच्छा काम करने के लिए टीम को संतुष्ट रखना भी बहुत जरूरी होता है. आपके पास पैसे हों या नहीं इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन आपके साथ जो लोग काम कर रहे हैं, उन्हें समय से सैलरी देना जरूरी होता है. इसके लिए कई तरह की दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है.

टेंशन दूर करता है मोटीवेशन
बिजनेस में कई तरह की परेशानियां आती हैं. यही परेशानियां हमें प्रोत्साहित भी करती हैं. हमने निश्चल केयर सोसाइटी के नाम से एक एनजीओ भी खोला है. इसके तहत हम गरीब बच्चों को मुफ्त मेडिकल सुविधा देते हैं

आइंस्टीन भी हुए थे फेल



पिछली सदी के दो बड़े नाम पूछे जाएं, तो सहज ही महात्मा गांधी व आइंस्टीन के नाम आयेंगे. दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे. आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था. स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा.

बड़े होने पर वह पॉलीटेक्निक इंस्टीच्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये. हालांकि, उन्हें भौतिकी में अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए. अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या दुनिया आज यहां होती. उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फिजिक्स कहा जाता है. जिंदगी के किसी एक मोड़ पर असफलता मिलते ही आत्मघाती कदम उठाने वाले युवा आइंस्टीन से सीख सकते हैं. युवाओं को सही दिशा देने में अभिभावकों व शिक्षकों की भी अहम भूमिका है. हमारे यहां बुद्धिमता के बस दो पैमाने हैं-पहला मौखिक (वर्बल), जिसमें सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए सवाल हल किये जाते हैं व दूसरा गणित या विज्ञान. देर से ही सही अमेरिकी मनोविज्ञानी गार्डनर के विविध बुध्दिमता के सिद्धांत को बिहार के स्कूलों में भी अपनाया जा रहा है. गार्डनर ने बताया कि बुद्धिमता आठ तरह की होती है. इसीलिए गणित या अंगरेजी में फेल हों या आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में असफलता मिले, तो हार न मानें. असफलता तो सफलता की सीढ़ी है. आइंस्टीन ने भी यही माना और अपने परिवार,पड़ोसी व गुरु जी को गलत साबित कर दिया. जो मानते हैं कि आप जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते, उन्हें आप भी गलत साबित कर सकते हैं.

Wednesday, 14 September 2011

दो बार फेल हुए थे गणितज्ञ रामानुजन



देश के महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन 12वीं में दो बार फेल हुए. उनका वजीफा बंद हो गया. उन्हें क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी. इससे पहले उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पहले दरजे से पास की थी. जिस गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ते हुए वे दो बार फेल हुए, बाद में उस कॉलेज का नाम बदल कर उनके नाम पर ही रखा गया.

पटना सहित कई शहरों में उनके नाम पर शिक्षण संस्थान हैं. तब उनकी प्रतिभा को समझनेवाले लोग देश में नहीं थे. उन्होंने तब के बड़े गणितज्ञ जीएच हार्डी को अपना पेपर भेजा. इसमें 120 थ्योरम (प्रमेय) थे. उन्हें कैंब्रिज से बुलावा आया. फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी से सम्मानित किया गया. उनके सूत्र कई वैज्ञानिक खोजों में मददगार बने.

अगर रामानुजन 12वीं में फेल होने पर निराश हो गये होते, तो कल्पना कीजिए, दुनिया को कितना बड़ा नुकसान होता. ठीक है, सभी रामानुजन नहीं हो सकते, पर यह भी अकाट्य सत्य है कि हर किसी कि अपनी विशिष्टता है. इस विशिष्टता का व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्य भी है. इसे नष्ट नहीं, बल्कि पहचानने व मांजने की जरत है.

फ्रांस के इमाइल दुर्खीम आत्महत्या पर शोध करनेवाले पहले आधुनिक समाज विज्ञानी हैं.1897 में उन्होंने इसके तीन कारण बताये, जिनमें पहला है आत्मकेंद्रित होना. व्यक्ति का समाज से कट जाना. जिंदगी को अकेलेपन में धकेलने के बदले, आइए हम खुद को सतरंगी समाज का अंग बना दें.

महात्मा गांधी को भी आये थे कम नंबर



दुनिया की सबसे डरावनी बीमारी का नाम कैंसर है. कैंसर अगर गंभीर स्तर पर पहुंच गया है, तब तो लोग मान बैठते हैं कि मौत बस चंद दिनों की बात है. पर, क्या किसी ने कैंसर पीड़ित व्यक्‍ति को आत्महत्या करते सुना है. उदाहरण खोजना मुश्किल होगा. वह सामने खड़े यमराज से ओखरी सांस तक लड़ता है.
वहीं हम आसपास फूल-से किशोरों या स्वस्थ युवकों को आत्महत्या करते पाते हैं. हाल में एक छात्र ने सुसाइडल नोट में लिखा-सॉरी पापा, मैं आपके सपने को पूरा नहीं कर पाया.

जिस छात्र ने अपने बारे में ऐसा मूल्यांकन किया, उसने खुद को पहचानने में भूल की. शायद उसे नहीं मालूम था कि जिस आदमी ने मानवता का नया इतिहास लिख दिया, वही आदमी आठवीं कक्षा में इतिहास में बेहद कमजोर था. जी हां, हम बात कर रहे हैं महात्मा गांधी की. उन्हें इतिहास में कम नंबर आते थे, पर वह अपने कर्मो से ऐतिहासिक बन गये.

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि आदमी को अपनी प्रतिभा की तुलना कभी अपने कॉलेज के रिपोर्ट कार्ड से नहीं करनी चाहिए. आत्महत्या कायरता है. काश, उस युवक ने लिखा होता, सॉरी पापा, मेरे कम नंबर आये, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा. मैं अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दुनिया को सुंदर बनाने में करना चाहता हूं. अपना छोटा-सा ही सही, लेकिन योगदान देना चाहता हूं.



Sunday, 11 September 2011

SIXTEEN RULES FOR SUCCESS IN LIFE



 1.  Keep good company or none; never be idle.
 2.  If your hands are not usefully employed, attend to the cultivation of your mind.
 3.  Live up to your engagements; keep your own secrets if you have any.
 4.  When you speak to a person, look him in the face.
 5.  Good company and good conversation are the sinews of virtue.
 6.  Good character is above all things else.
 7.  Ever live (misfortune excepted) within your income.
 8.  Make no haste to be rich if you would prosper.
 9.  Never play at any game of chance.
 10. Earn money before you spend it.
 11. Never run into debt unless you see a way to get out again.
 12. Never borrow if you can possibly avoid it.
 13. Do not marry until you are able to support a wife.
 14. Be just before you are generous.
 15. Be temperate in a things.
 16. Save when you are young, to spend when you are old.

कैट : आसान हुआ सफ़र अब दौड़ेगी गाड़ी



कैट ( कॉमन एप्टीट्यूड टेस्ट ), प्रबंधन के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा के रूप में जाना जाता है. ‘मौजूदा समय में युवाओं की दिलचस्पी इस ओर कुछ ज्यादा  बढ़ी है. फ़िर चाहे वे साधारण स्नातक छात्र हों या इंजीनियरिंग के छात्र या किसी और क्षेत्र के. युवाओं के बीच यह एक रुझान और आवश्यकता दोनों रूप में उभरा है.’

यह बात सामने आयी आइएमएस के संचालकों से बातचीत के दौरान.मैनेजमेंट कॉलेज में बतौर एमबीए लैक्चरर कार्य कर रहीं माधवी सिंह, एमबीए करने के पहले ही एक  इंजीनियरिंग कॉलेज में पर्सनालिटी डेवलपमेंट ट्रेनर के रूप में कार्यरत थीं. माधवी कहती हैं, ‘अच्छी नौकरी और पैकेज होने के बावजूद, वहां कार्य के दौरान महसूस हुआ कि मुझे एमबीए करना चाहिए. एमबीए करने का निश्चय करते ही मैंने नौकरी छोड़ी और कैट दिया. इसके बाद कॉलेज में प्रवेश लिया.’ मैं एमबीए ऐस्परेंट्स से एक बात जरूर कहना चाहूंगी कि मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रवेश लेने भर से आप किसी कंपनी के सीइओ बनने का ख्वाब न देखें. एक कॉलेज में बहुत सी चीजें सिखायी जाती हैं. यह छात्र पर निर्भर करता है कि वह क्या सीखता है और क्या छोड़ता है.

किसी भी मैनेजमेंट कॉलेज में प्रवेश लेने से पहले आपको यह पता होना चाहिए कि आप प्रबंधन के क्षेत्र में क्यों आ रहे हैं, आप आगे क्या करना चाहते हैं ? उसी के आधार पर कॉलेज में पढ़ाई जा रही चीजों को ग्रहण करें, विभिन्न क्रियाओं में भाग लें. ताकि आपके व्यक्तित्व में सकारात्मक विकास हो पाये.
विद्यार्थियों को कैट के स्कोर का इंतजार नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्कोर जनवरी में आता है. तब तक अधिकतर कॉलेजों के फ़ॉर्म निकल चुके होते हैं. मॉक टेस्ट के आधार पर कॉलेज चुन लें. फ़ाइनल स्कोर मॉक टेस्ट के स्कोर के आसपास ही होता है. कैट की प्रतिष्ठा को देखते हुए इसे दिन-प्रतिदिन और बेहतर करना भी जरूरी है. इसी क्रम में कैट 2011 में भी कुछ परिवर्तन किये गये हैं.

परिवर्तन का आधार सुधारात्मक
कैट 2011 में कुछ परिवर्तन किये गये हैं. इन परिवर्तनों के पीछे मुख्य उद्देश्य कैट को अंतरराष्ट्रीय स्तर की परीक्षा बनाना है.
इस बार परीक्षा में समय से लेकर सेक्शन तक में बदलाव किया गया है. इस वर्ष के कैट में होने वाले परिवर्तन, इस प्रकार हैं-
इस बार के कैट के पेपर में तीन सेक्शन के बजाय दो सेक्शन आयेंगे. पहले सेक्शन में क्वांटिटेटिव ऐबलिटी और डेटा इंटरप्रेटेशन है. दूसरे सेक्शन में वर्बल ऐबलिटी और लॉजिकल रीजनिंग है.
इस बार के कैट में पांच मिनट एक्सट्रा दिये जायेंगे. पेपर करने के लिए कुल 140 मिनट मिलेंगे. साथ ही पेपर की शुरुआत से पहले 15 मिनट और मिलते हैं.
एक सेक्शन को 70 मिनट दिये गये हैं. इस बीच में न ही छात्र सवाल छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं और न ही पीछे आ सकते हैं. यानी पीछे आने और आगे बढ़ने के विकल्प पर ताला लग गया है.
टेस्ट सेंटर पर पहुंचने के समय में 30 मिनट घटाये गये हैं. पहले के मुकाबले छात्रों को सेंटर पर 30 मिनट पहले पहुंचना होगा.
इस बार उत्तर भारत में तीन नये परीक्षा केंद्र बनाये गये हैं.

कौन करता है आयोजन
कैट, आइआइएम द्वारा आयोजित होने वाली परीक्षा है. इसी के माध्यम से विभिन्न इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रवेश मिलता है.



Friday, 9 September 2011

A successful man



A successful man is one who can lay a firm foundation with the bricks others have thrown at him.
David Brinkley 

Action is the foundational key to all success.
Pablo Picasso 

After I won the Oscar, my salary doubled, my friends tripled, my children became more popular at school, my butcher made a pass at me, and my maid hit me up for a raise.
Shirley Jones 

Always bear in mind that your own resolution to succeed is more important than any other.
Abraham Lincoln 

Belief in oneself is one of the most important bricks in building any successful venture.
Lydia M. Child 

Defeat is not the worst of failures. Not to have tried is the true failure.
George Edward Woodberry 

Develop success from failures. Discouragement and failure are two of the surest stepping stones to success.
Dale Carnegie 

Diligence is the mother of good fortune.
Benjamin Disraeli 

Don't aim for success if you want it; just do what you love and believe in, and it will come naturally.
David Frost 

Don't confuse fame with success. Madonna is one; Helen Keller is the other.
Erma Bombeck 

Failure is success if we learn from it.
Malcolm Forbes 

Flaming enthusiasm, backed up by horse sense and persistence, is the quality that most frequently makes for success.
Dale Carnegie 

Formal education will make you a living; self-education will make you a fortune.
Jim Rohn 

Formula for success: rise early, work hard, strike oil.
J. Paul Getty 

How can they say my life is not a success? Have I not for more than sixty years got enough to eat and escaped being eaten?
Logan P. Smith 

I couldn't wait for success, so I went ahead without it.
Jonathan Winters 

I don't know the key to success, but the key to failure is trying to please everybody.
Bill Cosby 

I honestly think it is better to be a failure at something you love than to be a success at something you hate.
George Burns 

I've failed over and over and over again in my life and that is why I succeed.
Michael Jordan 

If at first you don't succeed, try, try again. Then quit. There's no point in being a damn fool about it.
W. C. Fields

जुनून हो, तो बाधाएं भी रास्ता बना देती हैं



वेलमा रुडोल्फ़ को अमेरिकन ट्रैक और फ़ील्ड एथलीट के इतिहास में असाधारण माना जाता है. बचपन में काफ़ी दुर्बल और बीमार थीं, लेकिन इन परिस्थितियों पर जल्दी ही विजय प्राप्त कर वे एक ही ओलिंपिक में तीन स्वर्ण पदक हासिल करनेवाली अमेरिका की पहली महिला बनीं.वेलमा रुडोल्फ़ का जन्म बेथलम में 1940 में हुआ था. माता-पिता की 22 संतानों में से वह 20वीं थी. जन्म से ही उसे पोलियो था.

किशोरावस्था में भयंकर रूप से निमोनिया और बुखार ने जकड़ लिया. इन सब का असर उसके पैरों पर पड़ रहा था. कुछ लोगों ने तो उसे चलने तक से मना कर दिया था. वेलमा का सौभाग्य था कि उसे एक अच्छा परिवार मिला, जिन्होंने वेलमा की हर तरह से मदद की, उसे मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध करायीं. उसे दिन में चार बार फ़िजिकल थेरेपी दी जाती थी. जब वह पांच साल की थी, तो उसके पैरों में पट्टी बांध दी गयी, जो 11 साल की उम्र तक बंधी रही. फ़िर एक रविवार उसने वह पट्टी उतार फेंकी और चर्च की ओर चल पड़ी.
जब वेलमा 13 साल की हुईं तब वे स्कूल के बास्केटबॉल और ट्रैक टीम का हिस्सा बनीं. जल्दी ही वह दौड़ने लगीं और रेस भी जीतने लगीं. उन्हें टेनेसी स्टेट यूनिवर्सिटी के कोच ने ट्रेनिंग कैंप के लिए आमंत्रित किया. 1956 में जब वह हाइ स्कूल में थीं, तो उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न में आयोजित ओलिंपिक में हिस्सा लिया. 200 मीटर रेस में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, लेकिन रिले टीम में रजत पदक जीतने में कामयाब रहीं.

इसके बाद वेलमा ने खुद का ध्यान खेल पर और ज्यादा केंद्रित कर लिया. 1958 में टेनेसी स्टेट यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया और टाइगरबेल्स ट्रैक टीम का हिस्सा बनीं. 1960 में ओलंपिक ट्रायल के दौरान 200 मीटर रेस में उन्होंने वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम किया. इसके बाद रोम में हुए ओलंपिक खेल में 100 मीटर, 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने के बाद वह एक ही ओलिंपिक में तीन स्वर्ण पदक जीतनेवाली पहली अमेरिकी महिला बनीं.

इसके अगले साल उन्हें अमेरिका में हर साल एथलीटों को दिये जानेवाला शीर्ष पुरस्कार सुलिवन अवार्ड मिला. इसके अलावा 1993 में राष्ट्रपति क्‍लिंटन का पहला राष्ट्रीय खेल अवार्ड, ब्लैक स्पोर्ट्स हॉल ऑफ़ फ़ेम सहित कई अवार्डस मिले. उनकी ऑटोबायोग्राफ़ी वेलमा रुडोल्फ़ ऑन ट्रैक बेस्टसेलर थी. 1977 में इस पुस्तक पर एक टेली मूवी भी बनी. 12 नवंबर 1994 को ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गयी.

उन्होंने यह साबित कर दिया कि मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कुछ कर गुजरने का दृढ़ निश्चय अगर आपने कर लिया है, तो आपको रास्ते से कोई नहीं हटा सकता, आपकी शारीरिक अक्षमता भी नहीं. बचपन में वेलमा के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह लड़की कभी चल भी पायेगी, लेकिन खेल के प्रति अपने जुनून के कारण वह ओलंपिक में रिकॉर्ड ब्रेक करनेवाली गोल्ड मेडलिस्ट बनीं. हमारे पास तो इतना कुछ है, क्या हम अपने सपनों को पूरा नहीं कर सकते?

विश्व का पहला सुपर कंप्यूटर



सुपर कंप्यूटर किसी भी आम कंप्यूटर से कई हजार गुना ज्यादा स्पीड से काम करता है. इसे अमूमन स्पेस और सेटेलाइट डेवलपमेंट के लिये इस्तेमाल किया जाता है. दुनिया का पहला सुपर कंप्यूटर 60वें दशक में वजूद में आया था.

इसे डिजाइन करनेवाले सेयमर क्रे को लोग सुपर कंप्यूटर ओर्कटेक्ट के नाम से भी जानते हैं. जब क्रे ने यह कंप्यूटर डिजाइन किया, उस वक्त वह कंट्रोल डेटा कॉपरेरेशन में काम करते थे. क्रे के कंपनी छोड़ देने के बाद 1970 में इसे पहली बार मार्केट में उतारा गया. वैसे उस दौर का सुपर कंप्यूटर वर्तमान में सामान्य कंप्यूटरों के जैसा ही था.

आमतौर पर सुपर कंप्यूटरों का इस्तेमाल मौसम, रिसर्च, सेटेलाइट डेवपलमेंट और स्पेस की जानकारी के लिये किया जाता है. इन कंप्यूटरों की प्रोसेसिंग इतनी तेज होती है कि अरबों, खरबों की कोडिंग सेकेंड से भी कम वक्त में कर सकते हैं.कुछ महीनों पहले इसरो के चेयरमैन के राधाकृष्णन ने देश का सबसे लेटेस्ट सुपरकंप्यूटर लांच किया था.

इस सुपर कंप्यूटर की पूरी ड्राफ्टिंग और डेवलपमेंट विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर ने की है. इसरो का दावा है कि इस सुपर कंप्यूटर की स्पीड देश के पहले दो सुपर कंप्यूटर्स से ज्यादा है. इसे 220 टेराफ्लोप्स के साथ डिजाइन किया गया है. इसे सागा-220 नाम दिया गया है. इसरो ने इस सुपर कंप्यूटर को लांच कर दुनिया के सामने भारतीय कौशल की मिसाल पेश की. विश्व में सुपर कंप्यूटर्स : चीन ने अक्तूबर 2010 में दुनिया का सबसे तेज सुपर कंप्यूटर तिहाने-1ए लांचकिया था.

सुपर कंप्यूटर की स्पीड को फ्लॉप्स में नापा जाता है. चीन का सुपर कंप्यूटर 1015 टेराफ्लॉप्स है, जबकि इसकी तुलना में सागा की स्पीड सिर्फ़ 220 टेराफ्लॉप्स है. इससे पहला देसी सुपर कंप्यूटर टाटा का माना जाता है, जो पुणे में स्थित है. इसकी स्पीड 117.9 टेरा फ्लोप्स है. अगर विश्व के सबसे तेज सुपर कंप्यूटर की बात करें तो अमेरिका में स्थित जगुआर है, जिसे क्रे टी5 के नाम से भी जाना जाता है. जगुआर ने आइबीएम के रोड रनर को पछाड़ कर पहला स्थान प्राप्त किया है. साल 2008 से हाल तक रोड रनर को प्रथम स्थान प्राप्त था, जिसने 1 पीटा फ्लोप्स की गति सीमा को पार किया था. यह अमेरिका के रक्षा विभाग के लिये कार्य करता है.

Thursday, 8 September 2011

अपनी कमजोरी को बनायें अपनी ताकत



कई बार आपकी सबसे बड़ी कमजोरी आपकी सबसे बड़ी ताकत बन जाती है. इस कहानी को उदाहरण माना जा सकता है, जिसमें कार एक्सीडेंट के बाद अपना बायां हाथ गवां चुके 10 साल के एक बच्चे ने जूडो सीखने का निर्णय लिया.

लड़के ने एक बूढ़े जापानी जूडो मास्टर से प्रशिक्षण लेना शुरू किया. प्रशिक्षण में वह लड़का बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहा था, इसलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि ओखर क्या कारण है कि तीन महीने में मास्टर ने उसे केवल एक ही दावं खेलना सिखाया. लड़के से रहा नहीं गया. उसने मास्टर से पूछा, सेंसाइ (मास्टर) क्या मुङो और ज्यादा दावं नहीं सीखना चाहिए. सेंसाइ ने उत्तर दिया, यह एकमात्र दावं है, जो तुम जानते हो, लेकिन यही वह एकमात्र दावं है और रहेगा, जिसके बारे में तुम्हें जानना चाहिए. लड़का सेंसाइ की बातों को ठीक से समझ नहीं सका, लेकिन उसे भरोसा था, इसलिए वह प्रशिक्षण लेता रहा.कुछ महीने बाद सेंसाइ उसे पहले टूर्नामेंट के लिए ले गया.

लड़के को खुद आश्चर्य हुआ कि वह पहले दो मैच आसानी से जीत गया. तीसरा मैच थोड़ा कठिन था, लेकिन कुछ देर बाद उसका प्रतिद्वंद्वी थक कर चूर हो गया. लड़के ने एक वार किया और मैच जीत गया. अपनी सफ़लता से अभी भी वह आश्चर्यचकित था, लेकिन वह फ़ाइनल में पहुंच चुका था. फ़ाइनल में उसका प्रतिद्वंद्वी ज्यादा बड़ा, मजबूत और काफ़ी अनुभवी था. लड़का थोड़ा डर गया. रेफ़री को लगा कि लड़का चोटिल हो सकता है, वह टाइम आउट करना चाहता था. वह मैच को रोकने ही वाला था कि सेंसाइ ने उसे रोकते हुए कहा- उसे जारी रखने दो.जल्द ही मैच शुरू हो गया. लड़के के प्रतिद्वंद्वी ने एक गलती कर दी, उसने अपना गार्ड हटा दिया.

लड़के ने अपना दावं आजमाया. लड़का वह मैच और टूर्नामेंट जीत चुका था. वह चैंपियन बन गया था. घर जाते समय लड़के ने सेंसाइ से हर मैच के बारे में बारीकी से पूछने लगा. फ़िर लड़के ने सेंसाइ ने पूछा कि सिर्फ़ एक दावं से ही कैसे वह यह टूर्नामेंट जीतने में सफ़ल रहा? सेंसाइ ने कहा, तुम दो कारण से यह टूर्नामेंट जीत सके. पहला, तुम उस एक दावं के लगभग मास्टर बन चुके हो, जो जूडो में सबसे कठिन माना जाता है और दूसरा, इस दावं से बचने का प्रतिद्वंद्वी के पास एक ही रास्ता था, तुम्हारे बायें हाथ को पकड़ना.

लड़के की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी ताकत बन चुकी थी.हर कोई खास और महत्वपूर्ण है. इसलिए अगर सफ़ल होना है, तो बिना अपनी कमजोरी के बारे में सोचे, आपमें जो बेस्ट है, उसे सामने लायें. अवसर की कमी नहीं है. यह आप भी नहीं जान सकते कि कब एक सही अवसर आपका दरवाजा खटखटायेगा और कब आपकी सबसे बड़ी कमजोरी ही आपकी ताकत बन जायेगी. इसलिए हमेशा सकारात्मक सोचें.

मुश्किल नहीं कुछभी, अगर ठान लीजिए



एक जगह एक मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था. उसने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो. उसने गुस्से में आ कर कहा, देखते नहीं, पत्थर तोड़ रहा हूं. वह राहगीर आगे गया, उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो?

उस आदमी ने उदासी से हथौड़े से पत्थर तोड़ते हुए कहा, रोटी कमा रहा हूं, बच्चे के लिए, पत्नी के लिए. ऐसा कहते हुए वह फ़िर से पत्थर तोड़ने के काम में लग गया. वह राहगीर थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करने के साथ-साथ कोई गीत भी गुनगुना रहा था. राहगीर ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो मित्र? मजदूर अपने काम में रमा हुआ था. राहगीर की बातों पर उसका ध्यान नहीं गया. राहगीर ने फ़िर पूछा, मित्र तुम ये क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने कहा, भगवान का मंदिर बना रहा हूं. इतना कह कर उसने फ़िर गाना शुरू कर दिया. तीनों व्यक्ति एक ही काम कर रहे थे, पत्थर तोड़ने का काम, पर तीनों का काम के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग था. तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा था. अपने काम को पूजा की तरह कर रहा था, इसलिए खुश था.

जिंदगी में कम ही लोग हैं, जो अपने काम से प्यार करते हैं, और जो अपने काम से प्यार करते हैं, वही सफ़ल भी होते हैं. हर कोई सफ़ल हो सकता है, अगर काम को समर्पण के साथ करे. हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटीट्यूड क्या है, सफ़लता बहुत हद तक इसी पर निर्भर है. एटीट्यूड में परिवर्तन होने से हमारी सारी गतिविधियां बदल जाती हैं.याद रखें, अगर काम के प्रति आपका एटीट्यूड यह है कि आप नहीं कर सकते, तो आप सचमुच ही नहीं कर पायेंगे. बेहतर होगा कि हमेशा खुद से यह कहें कि मैं कर सकता हूं. यह आपको ताकत देगा. अधिकतर लोग सफ़लता का मूलमंत्र कड़ी मेहनत को ही मानते हैं.

यह सही भी है, क्योंकि कड़ी मेहनत के बाद ही सफ़लता की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन बिना उद्देश्य और राइट एटीट्यूड के की गयी मेहनत अक्सर व्यर्थ ही जाती है. इसलिए राइट एटीट्यूड और पॉजिटिव माइंडसेट के साथ काम करें. उदाहरण के लिए मार्केटिंग प्रोफ़ेशनल्स अपनी नाकामयाबी को बड़ी आसानी से यह कहते हुए टाल जाते हैं कि हमारे पास वे स्किल्स हैं ही नहीं, जिनसे प्रभावित हो कर हमारे क्लाइंट्स इंप्रेस हो सकें या मुझमें इतनी हिम्मत ही नहीं कि अमुक व्यक्ति की तरह मार्केटिंग कर सकूं. ऐसा सोचना आपको राइट मार्केटिंग एटीट्यूड से दूर कर देता है और आप सफ़ल नहीं हो पाते.

यह एटीट्यूड जितनी जल्दी अपनाएंगे, सफ़लता उतनी ही जल्दी मिलेगी. अगर अपने कैरियर के दौरान आप मन में यही सोचते रहे कि कुछ अच्छा होगा, कुछ बेहतर होगा, तो आप इंतजार ही करते रह जायेंगे. बेहतर होगा कि आगे बढ़ें और जिन चीजों के इंतजार में हैं, उन्हें खुद कर डालें. लेकिन सबसे पहले खुद से यह जरूर कहें कि मैं कर सकता हूं.