मुश्किलों से पार पाने का जज्बा हो तो सफ़लता कदम चूमेगी ही. राजेश कुमार ने इसी तथ्य को सूत्र मानकर जिंदगी जी है. कभी परिवार को लगता था कि राजेश भाई-बहनों के सहारे ही अपना पूरा जीवन गुजारेंगे, लेकिन आत्मविश्वास के बूते उन्होंने न केवल खुद मंजिल पायी है बल्कि अपने परिवार को भी सहारा दे रहे हैं. इस तरह वे युवाओं के लिए एक मिसाल बन गये हैं.
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती. किसी के सहारे पर जीने वाला यदि मन में ठान ले तो एक दिन खुद भी लोगों का सहारा बन सकता है. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं राजेश कुमार. राजेश दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. आज इन्हें किसी चीज की कमी नहीं है. लेकिन उनकी ऐसी स्थिति हमेशा से नहीं थी.
पुराने मिथ को तोड़ा
तीन साल की उम्र में आर्थिक तंगी ने राजेश की आंखों की रोशनी छीन ली. पूर्वी उत्तर प्रदेश में मस्तिष्क ज्वर बहुत फ़ैलता है. राजेश भी इसी के शिकार हुए. झोलाछाप डॉक्टरों के इलाज ने इनकी जिंदगी ही बदल डाली. डॉक्टरों ने बुखार तो उतार दिया, लेकिन इनकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए छीन ली. परिवार वाले हार गये और यह सोचकर बैठ गये कि इनको अपने भाई-बहन के आश्रय पर रहना पड़ेगा.
राजेश कहते हैं कि पूर्वाचल में कहीं भी चले जाओ, वहां एक तरह का मिथ मौजूद है कि हम जैसे लोगों की जिंदगी खराब हो गयी. हमें पैदा ही नहीं होना चाहिए था. इन्हें ऐसा लगता है कि हम कुछ कर नहीं सकते. लेकिन हमारा शरीर सिर्फ़ मिट्टी नहीं है. मैंने यही सोचकर जीना सीखा.
दृष्टिहीनता को रोड़ा नहीं माना
आजमगढ़ के राजेश को पढ़ना-लिखना शुरू से पसंद था. अपने भाइयों के साथ वह स्कूल जाने की जिद करते थे. मां भी उन्हें भेज देतीं, यह सोचकर कि चलो थोड़ा घूम आयेगा. राजेश ने ऐसे ही तीसरी तक की किताबें रट डाली. राजेश में शुरू से ही कुछ बनने की चाह थी और कुछ कर दिखाने का जज्बा भी. अपनी आंखों को कभी इन्होंने अपनी कमजोरी नहीं माना. वे जानते थे कि वो पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं.
लेकिन आजमगढ़ में इस तरह की कोई सुविधा नहीं थी. राजेश के परिवार में इनके माता-पिता के अलावा तीन भाई और दो बहन हैं. भाई-बहनों में सबसे बड़े राजेश ही यहां तक पहुंच पाये हैं. आसपास के लोगों और रिश्तेदारों को लगता था कि घर वालों को जिंदगी भर इनकी सहायता करनी होगी, लेकिन आज राजेश अपने पूरे परिवार का ध्यान रखते हैं. उनकी हर जरूरत को पूरा करते हैं.
जानकारी का अभाव
गांव के लोगों के पास जानकारी का अभाव है. साथ ही वहां व्यवस्था भी नहीं है. जो परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं उनकी स्थिति तो और भी खराब है. इसी कारण 10 वर्ष की उम्र में इनका दाखिला हुआ. वो भी तब, जब राजेश ने जिद की कि उन्हें पढ़ना है. वाराणसी में इस तरह के बच्चों के लिए विद्यालय है, यह जानकारी एक रिश्तेदार से मिलने पर राजेश के परिवार वालों ने उनका दाखिला करा दिया. वहां से हाईस्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद राजेश ने दिल्ली का रुख किया.
सीबीएसइ के सरकारी स्कूल में कम फ़ीस लगती थी और सुविधाएं भी दिल्ली में ज्यादा थी. फ़िर दिल्ली के हंसराज कॉलेज से बीए और एमए किया. इस बीच खाने और रहने के लिए उन्हें खासी जद्दोजहद करनी पड़ी. कम फ़ीस और खुला माहौल पाने के लिए राजेश ने जेएनयू का रुख किया. वहां से एमफ़िल और पीएचडी किया. 2008 में राजेश हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए.
आत्मविश्वास ने आगे बढ़ाया
स्टूडेंट एसोसिएशन में राजेश ने बहुत से काम किये. सामाजिक कार्यो में राजेश की ज्यादा दिलचस्पी है. बच्चों के साथ ये ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारते हैं. चाहे वे बच्चे उनके कॉलेज के हों या बाहर के, सभी उनसे मदद लेने आते हैं. राजेश को रामलीला के संवाद जुबानी याद है.
शिवाजी कॉलेज में लेक्चरर इनकी सहपाठी ज्योति कहतीं है कि राजेश में आत्मविश्वास बहुत ज्यादा है. हमें भी उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है. एक गरीब परिवार से दिल्ली आने वाले को कई तरह की परेशानियां ङोलनी पड़ती हैं. राजेश ने इन सभी को बहुत अच्छे से मैनेज किया.